Wednesday, December 12, 2018

Ghazal

ग़ज़ल 

ये गुफ्त-गुं की लत कभी ना कभी भारी पड़ेगी,
एक दिन तुम्हारी वफ़ा के आगे मेरी बेवफ़ाई भारी पड़ेगी,
मैं नशे की तरह हूँ मुझसे जितना दूर रहो उतना बेहतर,
हद से ज़्यादा करीब आ गए तो जुदाई बहुत भारी पड़ेगी ।

अभी भी वक़्त है थोड़ा सा सुधर जाओ,
वगरना चुनाव में ये जनता तुमको भारी पड़ेगी ।

चुप रहना कोई बुरी बात नहीं,
मगर किसी रोज़ तुम्हारी चुप्पी ही तुम पर भारी पड़ेगी ।

गुनाह करके दुनिया की नज़र से बच गए तो क्या हुआ,
होगा जब मौत से सामना तो उस खुदा की रज़ा भारी पड़ेगी |

जितना खोदना चाहते हो जी भर कर खोद लो,
खोखली हो जाएगी ये ज़मीं और तुम्हारी नस्लों को भारी पड़ेगी

हमसे उलझना चाहते हो तो आओ उलझ लो,
लेकिन याद रखना कि ये दुश्मनी बहुत भारी पड़ेगी ।

इस प्रवीण ने खुद को कभी बड़ा लेखक नहीं समझा,
मगर यदि मेरी कलम किसी पर चल जाए तो उसे बहुत भारी पड़ेगी ।



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