ग़ज़ल
हम उन्हें भी चाहते हैं जो हमें नहीं चाहते,
मगर जो हमें नहीं चाहते वो ना जाने आखिर चाहते क्या हैं।
उन्हें ये पूरी ज़मीं भी उठाकर दे दोगे तो खुश नहीं होंगे,
ना जाने मासूम जानो की जिंदगी उजाड़कर वो चाहते क्या हैं।
मिला हुआ एक छोटा सा टुकड़ा तो इनसे संभाला नहीं जाता,
अब खुदा ही जाने जन्नत से कश्मीर को लेकर ये चाहते क्या है।
आए दिन बलात्कारियों का घिनौनापन छपता है अख़बारों में,
ये सब देखकर आत्मा चिल्ला उठती है ये कुत्ते चाहते क्या हैं।
मैं उन्हें मनाना चाहता हूँ जो लोग रूठकर कहीं बिछड़ गए,
कोई बस इतना बता दे कि वो लोग आखिर मुझसे चाहते क्या हैं।
ऐसा नहीं कि मेरी नज़रों को उनकी मोहब्बत से इंकार है,
लेकिन ना जाने मेरे पनपते अरमान मुझसे चाहते क्या हैं।
ये प्रवीण उनके सवाल का कोई सीधा सा जवाब ही ना दे पाया,
जब उन्होंने मुस्कुरा कर धीरे से मुझसे पूंछा आप चाहते क्या हैं।
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