Monday, December 23, 2019

New Ghazal By Praveen Kumar Pandey

ग़ज़ल 

तुम अपनी सोई हुई बुध्दि को थोड़ा जगा लो, 
ये जनादेश है इसे अपने भेजे में ठीक से बैठा लो, 
कुर्सी किसी के बाप की जाहगीर नहीं होती, 
आग सुलगने से पहले बस अपना मकान बचा लो.

एक-एक कर के आखिर बिखर ही रहे हो, 
पूरी तरह टूटने से पहले बाकी मोहरों को उठा लो.

हमेशा राजनीति की भाषा बोलने से अच्छा, 
अपने मुँह को किसी अच्छे दर्जी से सिलवा लो.

संविधान को पैरों की जूती समझने वालों, 
तुम लोग अपने पैर खुद-ब-खुद कटवा लो.

तुम अपनी सोई हुई बुध्दि को थोड़ा जगा लो, 
ये जनादेश है इसे अपने भेजे में ठीक से बैठा लो.

_pk_Nobody_

Tuesday, December 17, 2019

New Ghazal By Praveen Kumar Pandey

ग़ज़ल 

कुछ ख्वाब अधूरे हैं, 
कुछ अनजान रास्ते हैं, 
हर अंधेरी रात के बाद, 
दिन के दिलकश नजारें हैं.

न जाने ये कैसा रिश्ता है, 
न तुम हमारे हो, न हम तुम्हारे हैं.

ज़ज़्बातों की धज्जियां उड़ाकर, 
आज भी हम एक दूसरे के सहारे हैं.

जिस मोहब्बत के समंदर में हम तैर रहे हैं, 
एक दिन उसी समंदर में हम बेशक डूबने वाले हैं.

_pk_Nobody_

Tuesday, November 26, 2019

New Ghazal

ग़ज़ल 

क्या जो दिख रहा है वही हो रहा है? 
इंसान खुली आँखों से न जाने क्यों सो रहा है? 
जब बाहर से सभी की ख़ुशी रज़ामंदी नज़र आ रही है, 
तो फिर हमारा दिल अंदर से न जाने क्यों रो रहा है?

गंदगी फैला कर जिसे मैली कर दी, 
उसी में जा कर हर एक अपने पाप क्यों धो रहा है? 

दूसरों से फल की अपेक्षा करने वाला, 
बीज की जगह न जाने क्यों काटों को बो रहा है? 

इंसान दिखावे की ख़ुशी में शरीक हो कर, 
न जाने कितने रिश्ते नातों को खो रहा है? 

क्या जो दिख रहा है वही हो रहा है? 
इंसान खुली आँखों से न जाने क्यों सो रहा है?

_pk_Nobody_