ग़ज़ल
इनको हिफ़ाज़तों के पिंजरे अब अखरने लगे हैं,
नए परिंदें भी अपनी आसमान की आज़ादी माँगने लगे हैं,
कल तक थे जो बच्चे गुड्डा-गुड़ियों से खेलते,
वो आज तलवारों और कट्टों की फरमाइशें करने लगे हैं|
इंसान उन्नति तो बहुत तेज़ी से कर रहा है,
लेकिन ये इंसान ना जाने क्यों आपस में मारने-मरने लगे हैं|
आज के युवा असली रिश्तों नातों को भूलकर,
दूसरी चीज़ों पर अपने ज़ज़्बातों को सजाने लगे हैं|
एहसास, स्पर्श, भावनाओं की अब कोई क़द्र नहीं रह गई,
आज के लोग तो बाज़ार में बिकने वाले खिलौने से ही मचलने लगे हैं|
इस प्रवीण ने सारी ज़िन्दगी गर्दन झुका कर गुज़ारी है,
फिर भी ना जाने क्यों कुछ लोग हमसे भी अकड़ने लगे हैं|
इनको हिफ़ाजतों के पिंजरे अब अखरने लगे हैं,
नए परिंदें भी अपनी आसमान की आज़ादी माँगने लगे हैं|
_ pk_Nobody_
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